वर्तमान भारतीय राजनीति में एक नई हलचल देखने को मिल रही है, जिसमें विपक्षी दलों के बीच की खींचतान और एकजुटता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। हाल ही में पेश किए गए विधेयक और उसके विरोध में उठते सवाल, राजनीतिक परिदृश्य को एक नई दिशा दे रहे हैं। जानिए इस विवाद का विस्तार से।
विपक्षी दलों के बीच बढ़ती दूरी
प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों की बर्ख़ास्तगी से जुड़े विधेयक की जांच के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति (JPC) को लेकर विपक्षी राजनीति में भारी उथल-पुथल मची है। पहले तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने इस समिति को 'नौटंकी' करार देते हुए बहिष्कार किया। इसके बाद समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी स्पष्ट कर दिया कि उनकी पार्टी JPC में शामिल नहीं होगी। अब आम आदमी पार्टी (AAP) ने भी इसी रुख़ को अपनाया है, जिससे विपक्षी एकजुटता पर गंभीर सवाल उठने लगे हैं।
इस स्थिति ने कांग्रेस के लिए चुनौती पैदा कर दी है, क्योंकि उसे विपक्षी एकता के नाम पर अपनी स्थिति बदलने का दबाव झेलना पड़ रहा है। पहले कांग्रेस इस पैनल का हिस्सा बनने के पक्ष में थी, लेकिन टीएमसी, सपा और AAP के कदमों ने कांग्रेस को असमंजस में डाल दिया है।
कांग्रेस के अंदर उठते सवाल
सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस का मानना है कि संसदीय समितियों की कार्यवाही अदालतों में महत्त्व रखती है और विवादित विधेयकों पर जनमत को प्रभावित करती है। लेकिन विपक्षी दलों के बायकॉट ने समीकरण बदल दिए हैं। अब कांग्रेस के अंदर ही सवाल उठने लगे हैं कि क्या पार्टी नेतृत्व विपक्ष की एकता को प्राथमिकता देगा या फिर अपनी पुरानी लाइन पर टिकेगा।
अखिलेश यादव का स्पष्ट रुख
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इस मुद्दे पर साफ किया है कि वे टीएमसी और ममता बनर्जी के साथ खड़े हैं। उन्होंने अंग्रेजी अखबार 'टाइम्स ऑफ इंडिया' से बातचीत में सवाल उठाया कि गृह मंत्री अमित शाह ने जो कुछ कहा है, उसके बाद यह विधेयक किस आधार पर लाया गया है।
अखिलेश का तर्क यह है कि इस प्रावधान के जरिए किसी भी नेता को फर्जी मामलों में फंसाकर पद से हटाया जा सकता है। उन्होंने अपने नेताओं जैसे आज़म खान, रामाकांत यादव और इरफान सोलंकी का उदाहरण दिया, जिनका लंबा समय जेल में गुजरा। उनके अनुसार, यह कानून संघीय ढांचे के खिलाफ है, क्योंकि राज्यों के मुख्यमंत्री अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों को वापस ले सकते हैं।
टीएमसी की प्रतिक्रिया
टीएमसी सांसद डेरेक ओ'ब्रायन ने इस JPC को 'नौटंकी' बताया। उन्होंने आरोप लगाया कि मोदी सरकार जानबूझकर ऐसे मुद्दों को उठाकर असली सवालों से ध्यान भटकाना चाहती है। ओ'ब्रायन ने कहा कि पहले JPC का गठन जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था, लेकिन 2014 के बाद से इन्हें राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
उन्होंने एक ब्लॉग पोस्ट में कहा कि लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा के चेयरमैन मिलकर JPC के अध्यक्ष का चयन करते हैं, जिससे समिति का झुकाव सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में हो जाता है।
कांग्रेस के सामने क्या संकट है?
विपक्ष की अधिकांश पार्टियों का मानना है कि संसदीय समितियों की कार्यवाही अदालतों में महत्त्व रखती है और विवादित कानूनों पर जनमत को प्रभावित करती है। इसी विचारधारा के चलते कांग्रेस JPC में शामिल होने के पक्ष में थी। लेकिन टीएमसी और सपा के बहिष्कार ने समीकरण को फिर से बदल दिया है। इस बीच, कांग्रेस पर दबाव है कि वह विपक्षी एकता को प्राथमिकता दे या अपनी पुरानी स्थिति पर कायम रहे।
विधेयक की मुख्य बातें
20 अगस्त को लोकसभा में संविधान (130वां संशोधन) विधेयक 2025, केंद्र शासित प्रदेश सरकार (संशोधन) विधेयक 2025, और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक 2025 पेश किए गए। इनका मुख्य उद्देश्य यह है कि यदि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री 30 दिन तक हिरासत में रहते हैं, तो उन्हें अपने पद से हटा दिया जाएगा।
इन विधेयकों की समीक्षा के लिए बनाई गई JPC में लोकसभा के 21 और राज्यसभा के 10 सांसद शामिल हैं, और समिति को शीतकालीन सत्र में अपनी रिपोर्ट पेश करनी है।
इस संदर्भ में यह समझना महत्वपूर्ण है कि ऐसे विधेयकों का पारित होना केवल राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह विधायिका और कार्यपालिका के बीच की शक्तियों के संतुलन को भी प्रभावित करेगा।
इस मुद्दे पर और अधिक जानकारी के लिए, आप इस वीडियो को देख सकते हैं:
इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य ने विपक्षी दलों के बीच की खाई को और गहरा किया है, जिससे कांग्रेस को एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना होगा।


