बिहार की राजनीतिक स्थिति में चिराग पासवान की भूमिका लगातार चर्चा में है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोशिशों के बावजूद, एनडीए में चिराग पासवान की डिमांड एक चुनौती बन गई है। इस जटिल सियासी समीकरण को समझना आवश्यक है, क्योंकि यह केवल चिराग की मांग तक सीमित नहीं है, बल्कि बिहार की राजनीति में व्यापक प्रभाव डाल सकती है।
चिराग पासवान की सियासी मांगें और एनडीए की चिंताएँ
बिहार की सत्ता में काबिज नीतीश कुमार अपने शासन को मजबूत करने के लिए हर दिन नए ऐलान कर रहे हैं, जबकि पीएम मोदी विकास की योजनाओं के माध्यम से एनडीए का माहौल बनाने में जुटे हैं। इसके बावजूद, चिराग पासवान की द्वारा उठाई गई राजनीतिक मांगें एनडीए के लिए चिंता का विषय बन गई हैं।
एनडीए में चिराग पासवान की एलजेपी (आर), जीतन राम मांझी की पार्टी HAM और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा शामिल हैं। सीटों के बंटवारे पर सहमति न बनने से एनडीए का गठबंधन संकट में है। सूत्रों के अनुसार, बीजेपी और जेडीयू में सीटों का बंटवारा बराबर-बराबर करने की बात चल रही है, लेकिन चिराग पासवान ने 40 सीटों की मांग रखकर सियासी तनाव बढ़ा दिया है।
सीटों का बंटवारा: जटिल समीकरण
बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं। यदि बीजेपी और जेडीयू बराबर सीटों पर चुनाव लड़ते हैं, तो उन्हें 100 से 105 सीटें मिलने की संभावना है। इस हिसाब से, यदि दोनों दल 200 से 210 सीटों के लिए सहमत होते हैं, तो एनडीए के अन्य घटक दलों के लिए केवल 33 से 43 सीटें ही बचेंगी।
- बीजेपी और जेडीयू के लिए 100 से 105 सीटें संभावित हैं।
- चिराग पासवान की एलजेपी ने 40 सीटों की मांग रखी है।
- अन्य दलों को भी सीटें देनी हैं, जैसे कि मांझी और कुशवाहा।
- इससे चिराग को 20 से 25 सीटें मिलना कठिन हो सकता है।
चिराग पासवान के लिए यह स्थिति चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि उनकी मांगें पूरी करना बीजेपी और जेडीयू के लिए संभव नहीं दिख रहा है। पिछले चुनाव में जेडीयू की हार का एक बड़ा कारण चिराग की ओर से उठाया गया मुद्दा था।
चिराग पासवान: एनडीए के गले की फांस?
केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान अपने पिता रामविलास पासवान की राजनीतिक विरासत को संभालते आ रहे हैं। 2020 में जब उन्हें मनचाही सीटें नहीं मिलीं, तो उन्होंने एनडीए से नाता तोड़कर अलग चुनाव लड़ा। इस चुनाव में उनकी पार्टी ने 135 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे, जिसमें जेडीयू की सभी सीटों पर चुनाव लड़ा गया, लेकिन बीजेपी के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं उतारे गए।
चिराग की इस रणनीति ने नीतीश कुमार को काफी नुकसान पहुंचाया था। जेडीयू केवल 43 सीटों पर सिमट गई थी, जबकि बीजेपी ने 74 सीटें जीती थीं। इस प्रकार, चिराग की पार्टी ने न केवल जेडीयू को कमजोर किया, बल्कि बीजेपी को भी मजबूती दी।
चिराग का राजनीतिक आधार और भविष्य की संभावनाएँ
चिराग पासवान की एलजेपी अब भी बिहार में लगभग 10 प्रतिशत वोट शेयर पर काबिज है। उनका सियासी आधार मुख्य रूप से दलित और अतिपिछड़े वर्ग के बीच फैला हुआ है। 2025 का चुनाव बीजेपी नीतीश कुमार के चेहरे पर लड़ने जा रही है, लेकिन जेडीयू को कम सीटों पर लड़ने का कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में एलजेपी की 40 सीटों की मांग को पूरा करना मुश्किल प्रतीत होता है।
- एलजेपी का बिहार में 10% वोट शेयर है।
- चिराग की पार्टी के पास 5 सांसद हैं।
- 20 विधानसभा सीटों का फॉर्मूला बनता है।
- 2024 का चुनाव एलजेपी के लिए महत्वपूर्ण है।
एलजेपी ने यह तर्क भी दिया है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उनका प्रदर्शन शत प्रतिशत रहा था। उन्होंने सभी पांच सीटें जीतीं और 6 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। इस आधार पर, चिराग पासवान 40 सीटों की मांग कर रहे हैं, जो जेडीयू और बीजेपी के लिए स्वीकार करना कठिन होगा।
एनडीए के लिए चिराग की मांग का खतरा
अगर चिराग पासवान एनडीए से अलग होते हैं, तो यह स्थिति अत्यंत संवेदनशील बन जाएगी। उनका नाराज होना एनडीए के लिए एक बड़ा खतरा साबित हो सकता है। 2020 में, चिराग ने केवल 135 सीटों पर चुनाव लड़ा और महज एक सीट मटिहानी जीती। लेकिन उनके उम्मीदवारों ने जेडीयू को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचाया था, जिससे एनडीए को मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
यदि चिराग पासवान अपनी स्थिति में सुधार करते हैं और महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनते, तो वे प्रशांत किशोर की पार्टी के साथ हाथ मिलाने का निर्णय ले सकते हैं। ऐसा होने पर, एनडीए की स्थिति कमजोर पड़ सकती है।
इस प्रकार, चिराग पासवान की डिमांड एनडीए के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है और इससे आने वाले चुनावों की राजनीति पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। चिराग की स्थिति का सही आकलन करके ही एनडीए अपनी आगे की रणनीति तय कर सकता है।