भारत में मॉनसून का बदलता पैटर्न और आपदाओं का प्रभाव

सूची
  1. मॉनसून का नया स्वरूप
  2. मॉनसून के परिवर्तन का कारण
  3. बारिश के पैटर्न में बदलाव
  4. असर और चुनौतियाँ
  5. नीतियों में आवश्यक परिवर्तन
  6. भविष्य के लिए क्या कदम उठाए जाएं?

भारत में मॉनसून केवल एक मौसम चक्र नहीं है, बल्कि यह देश की अर्थव्यवस्था, कृषि और जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है। हर साल, जून से अक्टूबर के बीच आने वाला यह मौसम न केवल किसानों के लिए बारिश का स्रोत है, बल्कि यह जल संसाधनों, खाद्य सुरक्षा और जलवायु संतुलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालाँकि, हाल के वर्षों में, मॉनसून के स्वरूप में बदलाव आ रहा है, जो चिंता का विषय बन गया है। आइए देखें कि यह बदलाव कैसे हो रहा है और इसके पीछे के कारण क्या हैं।

मॉनसून का नया स्वरूप

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के वैज्ञानिकों ने 1971 से 2020 तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इस अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि मॉनसून की अवधि अब हर दशक औसतन 1.6 दिन बढ़ रही है। इसका मतलब यह है कि मॉनसून अब पहले की तुलना में अधिक समय तक रहता है और इसकी विदाई भी देरी से होती है।

  • मॉनसून का सामान्य प्रारंभ 1 जून को केरल में होता है।
  • 15 जुलाई तक यह पूरे भारत में फैल जाता है।
  • 15 सितंबर से 15 अक्टूबर के बीच यह वापस चला जाता है।

हालांकि, अब यह समय बढ़ रहा है, खासकर उत्तर-पश्चिम भारत में, जहाँ विदाई में देरी हो रही है। इससे कृषि और जल प्रबंधन पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

मॉनसून के परिवर्तन का कारण

वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान इस बदलाव के मुख्य कारण हैं। 1986 से 2015 के बीच भारत का औसत तापमान हर दशक में 0.15 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। आने वाले वर्षों में यह और तेज हो सकता है।

ग्लोबल क्लाइमेट मॉडल (CMIP6) के अनुसार, यदि तापमान में एक डिग्री की बढ़ोतरी होती है, तो मॉनसून की बारिश में 6% का इजाफा हो सकता है। इसके साथ ही, अल नीनो जैसे समुद्री तापमान में बदलाव भी बारिश के पैटर्न को प्रभावित कर रहे हैं।

बारिश के पैटर्न में बदलाव

अध्ययन से यह भी पता चला है कि मॉनसून के सक्रिय दिनों की संख्या हर दशक 3.1 दिन बढ़ रही है। जून से सितंबर के बीच होने वाली बारिश साल की कुल बारिश का 75% हिस्सा होती है, जबकि अक्टूबर तक यह 79% तक पहुँच जाती है।

  • 1971-2020 के बीच बारिश के आंकड़ों में महत्वपूर्ण अंतर पाया गया है।
  • खासकर जून से अक्टूबर तक की बारिश फसलों पर अधिक प्रभाव डालती है।
  • यह खाद्य सुरक्षा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार, मॉनसून के इस नए स्वरूप के परिणामस्वरूप, खेती और कृषि पर कई चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।

असर और चुनौतियाँ

मॉनसून की देरी और लंबी अवधि खेती की समय-सारणी को बिगाड़ सकती है। बुवाई और कटाई का समय गड़बड़ हो सकता है, जिससे किसानों को आर्थिक नुकसान हो सकता है। इसके अतिरिक्त, अधिक बारिश से बाढ़ का खतरा बढ़ता है, जबकि कम बारिश सूखे की स्थिति पैदा करती है।

इस बदलाव का जल प्रबंधन, बांधों की योजना और खाद्य भंडारण पर भी गहरा असर पड़ता है। विशेषकर उत्तर-पश्चिम भारत में, जहाँ मॉनसून की विदाई में देरी की समस्या फसलों के लिए और चुनौतियाँ पैदा कर रही है।

नीतियों में आवश्यक परिवर्तन

अब मॉनसून केवल मौसम का मुद्दा नहीं रह गया है, बल्कि यह नीति निर्माण का भी एक महत्वपूर्ण पहलू बन गया है। इसके लिए सिंचाई, जलाशयों का प्रबंधन, और खाद्य सुरक्षा रणनीतियों को फिर से सोचने की आवश्यकता है।

  • मौसम विज्ञानियों, कृषि विशेषज्ञों और नीति निर्माताओं को मिलकर नई योजनाएँ बनानी चाहिए।
  • इस बदलते मानसून के साथ तालमेल बैठाने के लिए प्रभावी नीतियों की आवश्यकता है।
  • जल संसाधनों का प्रबंधन, सिंचाई तकनीकों का सुधार, और खाद्य सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

इस संदर्भ में, कृषि अनुसंधान और प्रौद्योगिकी का उपयोग करने से बेहतर समाधान मिल सकते हैं।

भविष्य के लिए क्या कदम उठाए जाएं?

वैज्ञानिकों का कहना है कि मॉनसून के बदलते स्वरूप को समझने के लिए और गहराई से अध्ययन की आवश्यकता है। वे सुझाव देते हैं कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाने चाहिए:

  • पेड़ लगाना और हरित क्षेत्र बढ़ाना।
  • प्रदूषण को कम करना और टिकाऊ खेती को बढ़ावा देना।
  • किसानों को नई तकनीक और बीज उपलब्ध कराना ताकि वे बदलते मौसम का सामना कर सकें।

इन कदमों के माध्यम से, हम न केवल मॉनसून के प्रभावों को कम कर सकते हैं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित और स्थायी वातावरण भी तैयार कर सकते हैं।

इस संदर्भ में, आपको यह वीडियो भी देखना चाहिए, जो मौजूदा मौसम की स्थिति और मानसून के प्रभावों पर अद्यतन जानकारी प्रदान करता है:

Go up