प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री सार्वजनिक नहीं होगी, हाई कोर्ट का फैसला

सूची
  1. दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय
  2. निजता का अधिकार बनाम जानने का अधिकार
  3. दिल्ली विश्वविद्यालय के तर्क
  4. आरटीआई अधिनियम और शैक्षिक रिकॉर्ड
  5. राजनीतिक दृष्टिकोण और विवाद
  6. सम्बंधित ख़बरें

दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है, जिसमें कहा गया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ग्रेजुएशन डिग्री की जानकारी सार्वजनिक करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह मामला तब से चर्चा का विषय बना हुआ है, जब केंद्रीय सूचना आयोग ने इस मामले में आदेश जारी किया था। इस निर्णय ने न केवल राजनीतिक हलचल को बढ़ाया है, बल्कि यह भी सवाल उठाता है कि क्या सार्वजनिक जीवन में आने वाले नेताओं की शैक्षिक योग्यता को पारदर्शिता के तहत प्रस्तुत किया जाना चाहिए या नहीं।

दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय

सोमवार को, दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि दिल्ली विश्वविद्यालय को केंद्रीय सूचना आयोग के आदेश को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की ग्रेजुएशन डिग्री का विवरण मांगा गया था। यह मामला उस समय शुरू हुआ था जब 2016 में CIC ने 1978 में बीए की परीक्षा पास करने वाले सभी छात्रों के रिकॉर्ड की जांच की अनुमति दी थी, जिसमें मोदी का नाम भी शामिल था।

दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। जनवरी 2017 में इस पर पहली सुनवाई की गई, जिसमें कोर्ट ने विश्वविद्यालय को राहत दी थी।

निजता का अधिकार बनाम जानने का अधिकार

सुनवाई के दौरान, विश्वविद्यालय के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि 'निजता का अधिकार' 'जानने के अधिकार' से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत जानकारी को सार्वजनिक करने का कोई औचित्य नहीं है जब तक कि यह जनहित में न हो।

  • निजता का अधिकार: इसे संवैधानिक अधिकार माना जाता है।
  • जानने का अधिकार: यह नागरिकों को जानकारी तक पहुंच प्रदान करता है।
  • जनहित: जानकारी का खुलासा तब किया जाना चाहिए जब यह समाज के व्यापक हित में हो।

इसके अलावा, विश्वविद्यालय ने बताया कि वह प्रधानमंत्री मोदी के डिग्री रिकॉर्ड को अदालत में पेश करने के लिए तैयार है, लेकिन आरटीआई अधिनियम के तहत 'अजनबियों द्वारा जांच' के लिए इन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता।

दिल्ली विश्वविद्यालय के तर्क

दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने तर्क में कहा कि वे छात्रों की जानकारी को एक नैतिक दायित्व के तहत सुरक्षित रखते हैं। उनका कहना था कि जनहित के अभाव में, केवल जिज्ञासा के आधार पर आरटीआई कानून के तहत जानकारी मांगने का कोई औचित्य नहीं है।

विश्वविद्यालय ने यह भी कहा कि आरटीआई अधिनियम का उद्देश्य केवल किसी की जिज्ञासा को शांत करना नहीं है। वे समझते हैं कि यदि कोई जानकारी किसी की व्यक्तिगत पहचान या निजता से जुड़ी है, तो उसे सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए।

आरटीआई अधिनियम और शैक्षिक रिकॉर्ड

आरटीआई (सूचना का अधिकार) अधिनियम के अंतर्गत, किसी भी नागरिक को सरकारी संस्थानों से जानकारी मांगने का अधिकार है। यह कानून नागरिकों को पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में एक मजबूत उपकरण प्रदान करता है। हालांकि, इस कानून के अंतर्गत मांगी गई जानकारी अक्सर उन मामलों में चुनौती बन जाती है जहां निजता का अधिकार भी शामिल होता है।

इसके तहत, सीनियर वकील संजय हेगड़े ने सीआईसी के आदेश का बचाव करते हुए कहा कि सूचना का अधिकार प्रधानमंत्री के शैक्षिक रिकॉर्ड के खुलासे की अनुमति देता है। उन्होंने यह भी बताया कि आमतौर पर विश्वविद्यालयों द्वारा इस तरह की जानकारी को सार्वजनिक किया जाता है।

राजनीतिक दृष्टिकोण और विवाद

प्रधानमंत्री मोदी की शैक्षिक योग्यताएँ लंबे समय से राजनीतिक विवाद का हिस्सा रही हैं। विपक्षी दल, खासकर आम आदमी पार्टी, ने उनकी डिग्री की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए हैं। इस बीच, भारतीय जनता पार्टी ने उनकी डिग्री की प्रतियां प्रस्तुत की हैं और विश्वविद्यालयों ने सार्वजनिक रूप से उनकी वैधता की पुष्टि की है।

फिर भी, यह मामला कानूनी लड़ाई में उलझा हुआ है। दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय ने इस विवाद को और भी बढ़ा दिया है, जिससे राजनीतिक रुख स्पष्ट हो रहा है।

सम्बंधित ख़बरें

इस मुद्दे पर और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए, आप इस वीडियो को देख सकते हैं, जिसमें इस विषय पर गहन चर्चा की गई है:

इस मामले में आगे बढ़ने के लिए, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि सार्वजनिक जीवन में नेताओं की शैक्षिक योग्यता को किस तरह से देखा जाता है। क्या यह उनकी कार्यक्षमता का प्रमाण है या केवल एक व्यक्तिगत मामला? यह प्रश्न आज की राजनीति में एक महत्वपूर्ण विचार बन चुका है।

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