भारत की कृषि अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण स्तंभ कपास की खेती, जिसे 'सफेद सोना' भी कहा जाता है, वर्तमान में कई संकटों का सामना कर रही है। हालांकि मोदी सरकार ने किसानों की आय दोगुना करने का वादा किया था, वास्तविकता यह है कि कई राज्यों में किसानों की आय में असमानता बढ़ती जा रही है। बिहार और ओडिशा के किसानों की आय पंजाब और हरियाणा के किसानों की तुलना में काफी कम है। यह असमानता सरकारी नीतियों की नासमझी, वैज्ञानिकों की लापरवाही और किसानों की मजबूरी का परिणाम है।
इस समय भारत में कपास की खेती एक अभूतपूर्व संकट में है। मंडियों में कपास के दाम तेजी से गिर रहे हैं, और इसके पीछे केंद्र सरकार के एक हालिया फैसले का बड़ा हाथ है। मोदी सरकार ने कपास पर इंपोर्ट ड्यूटी को शून्य कर दिया है, जिससे घरेलू उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। यह कदम टेक्सटाइल इंडस्ट्री को संरक्षण देने के लिए उठाया गया है, लेकिन इसका परिणाम किसानों के लिए बहुत ही नकारात्मक हो रहा है।
कपास की खेती का संकट: गिरते उत्पादन और बढ़ते आयात
आंकड़ों के अनुसार, पिछले दो वर्षों में कपास की खेती का रकबा 14.8 लाख हेक्टेयर घट गया है, और उत्पादन में भी 42.35 लाख गांठ की कमी आई है। 2017-18 में भारत का कपास उत्पादन 370 लाख गांठ था, जबकि पिछले वित्त वर्ष में यह घटकर 294.25 लाख गांठ रह गया। इस दौरान, कपास का आयात भी बढ़कर 29 लाख गांठ तक पहुँच गया है, जो कि पिछले छह वर्षों में सबसे अधिक है।
- एक गांठ में लगभग 170 किलो कपास होता है।
- विशेषज्ञों का मानना है कि यह बढ़ता आयात उपभोक्ताओं के लिए भी खतरा बन सकता है।
- कपास की बढ़ती आयात निर्भरता से कपड़ों की कीमतें तेजी से बढ़ने की संभावना है।
इस संकट का सामना करने के लिए किसानों को बेहतर नीतियों और समर्थन की आवश्यकता है। इसके बिना, भारतीय कपास उद्योग गंभीर संकट में पड़ सकता है, जिससे देश की आर्थिक स्थिति भी प्रभावित हो सकती है।
तीन कारण: दाम, नीतियाँ और कीट
भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक है, लेकिन इसके बावजूद किसानों की निराशा बढ़ती जा रही है। इसकी मुख्य तीन वजहें हैं:
- कम दाम: कपास का दाम 2021 में 12,000 रुपये प्रति क्विंटल था, जो अब घटकर 6,500–7,000 रुपये रह गया है।
- गलत नीतियाँ: सरकार की नीतियाँ अक्सर किसानों के हितों के खिलाफ होती हैं, जैसे कि हाल में इंपोर्ट ड्यूटी को शून्य करना।
- गुलाबी सुंडी: इस कीट ने बीटी कॉटन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है, जिससे फसल की पैदावार घट रही है।
इन कारणों के चलते किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तक पहुंचने में भी असमर्थ हैं, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और भी खराब होती जा रही है।
गिरती उत्पादकता और वैश्विक तुलना
कपास की उत्पादकता 2017-18 में 500 किलो प्रति हेक्टेयर से घटकर 2023-24 में 441 किलो तक पहुँच गई है। यह आंकड़ा वैश्विक औसत 769 किलो से काफी कम है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका की उत्पादकता 921 किलो प्रति हेक्टेयर है।
- चीन की उत्पादकता 1950 किलो प्रति हेक्टेयर है।
- पाकिस्तान भी भारत से आगे निकल चुका है।
इस गिरती उत्पादकता के चलते भारत की कपास उद्योग की विश्व बाजार में प्रतिस्पर्धा कमजोर हो रही है, जो न केवल किसानों के लिए, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी खतरा है।
आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते कदम: चुनौतियाँ और संभावनाएँ
विशेषज्ञों का मानना है कि शून्य आयात शुल्क लागू करना कपास किसानों के लिए एक गंभीर खतरा साबित होगा। सरकार आत्मनिर्भर भारत की बात करती है, लेकिन नीतियों में सुधार की आवश्यकता है। यदि समय रहते उचित कदम नहीं उठाए गए, तो न केवल किसानों की आय प्रभावित होगी, बल्कि उपभोक्ताओं की जेब पर भी बड़ा बोझ बढ़ सकता है।
किसानों को उनके उत्पादों के लिए उचित दाम दिलाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:
- किसानों को बेहतर MSP सुनिश्चित करना।
- कपास के आयात पर नियंत्रण लगाना।
- गुलाबी सुंडी जैसे कीटों के खिलाफ वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देना।
- किसान संगठनों के साथ मिलकर नीतियों में बदलाव करना।
इस संदर्भ में, सरकार को किसानों की समस्याओं को गंभीरता से लेना चाहिए और प्रभावी नीतियों के माध्यम से उनकी स्थिति में सुधार लाना चाहिए।
कपास की खेती को संकट से उबारने के लिए सही कदम उठाना अत्यंत आवश्यक है। अगर आप इस विषय में और अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं, तो इस वीडियो को देखें:
किसानों की आय बढ़ाने और कपास की खेती को पुनर्जीवित करने के लिए एकजुटता और ठोस कदमों की आवश्यकता है। अगर हम सभी मिलकर इस दिशा में कार्य करें, तो निश्चित रूप से एक सकारात्मक बदलाव संभव है।